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वैष्णव मैरिज ब्यूरो-चतुः संप्रदाय

समता – गीता

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानद्ध्यानं विशिष्यते। ध्यानात्कर्मफलत्यागा त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥१२- १२॥

बिनु जानी मर्म अभ्यास कियौ, तस ज्ञान सों ज्ञान परोक्ष भल्यो। मम ध्यान

धरै यहि तासों भल्यो निष्काम करम, अति श्रेय भल्यो।।

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च। निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी॥१२- १३॥

जिन द्वेशन स्वारथ हीन भये, ममता और अहम विहीन भये, सुख दुखन प्रीति प्रतीति नाहीं, तिन मोरे ध्यान विलीन भये।।

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्योमद्भक्तः स मे प्रियः॥१२- १४॥

मन इन्द्रिन जिन वश माहीं किये, संतोष निरंतर ध्यान किये अर्पित मन बुद्धि समर्पित जो, ही भक्त मेरौ, मैं ताके हिये।।

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः। हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥१२- १५॥

उद्विग्न करै न होय स्वयं, भय, हर्ष, अमर्ष विहीन जना. अस भक्त जो सम्यक संयत में, उनकौ, वे मोरे सनेही मना।।

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः। सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥१२- १६॥

अति पावन दक्ष ना चाह हिये बिलगाय गयौ जिन दुखन सों परित्यागी अकर्ता प्रिय मोरे, लपटात तिन्हें, आपुनि मन सों।।

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति। शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥१२- १७॥

न द्वेष, न हर्ष, न शोच करें, नाहीं चाह धरें, हिया माहीं कोऊ शुभ कर्म अशुभ फल त्याग करैं, मोहे भक्त, अति प्रिय होत सोऊ।

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः। शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः॥१२- १८॥

सुख दुखन शीतन तापन में, अपमान-मान, रिपु -मित्रं में, ब माहीं रहै सम भावन में आसक्ति बिना संसारन में।

तुल्यनिन्दास्तुतिर्म नी सन्तुष्टो येन केनचित्।अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥१२- १९॥

सुख माने जेहि विधि कृष्ण धरै सम निंदा स्तुति माहीं हिया, ना नेह -निकेत मनन प्रिय जो, स्थिर मति भक्तन मोह लिया।

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते। श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥१२- २०॥

जे उक्त धर्म मय अमिय पान, निष्काम भाव सों पान कियो, तस भक्त ही मोहे अतिशय प्रिय, मम होत परायण जीत हियो।

चित्त मेकम्नशक्नोति जितंस्वातंत्र वर्जितं। ध्यान वार्तावदन्मुढ किम्लोकेन् लाज्यते।।

जिनको न चित्त एकाग्र भये। ते ध्यान के बात किए न किये।। 

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