बहुत कम लोगों को पता होगा कि, प्रसिद्ध संत श्री नरसिंह मेहता जी ने अपने प्रसिद्ध भजन “वैष्णव जन तो तेने रे कहिए”… के माध्यम से “वैष्णव” लोगों की महिमा को “बड़े भाव पूर्ण स्पष्ट रूप से” व्यक्त किया है। ठीक उसी प्रकार अपनी बेबाकी के लिए प्रसिद्ध संत श्री कबीर दास जी ने जिस किसी भी विषय पर अपना मत प्रकट किया है वो बिना किसी लाग लपेट के सीधा सट्ट सटीक अप्रतिम और अत्यंत ही सारगर्भित है। कबीरदास जी की रचनाओं की यह खूबी रही है कि बहुत संक्षेप में कहे गए वचनों का गुड़ार्थ का दायरा बहुत व्यापक दिखाई देता है। कबीरदास जी ने “रागी” और “वैरागी” “दास”, को किस अर्थो में प्रस्तुत किया गया है- उनके द्वारा रचित निम्नांकित मात्रा दो पदों के माध्यम से प्रस्तुत है एक बानगी,
(कबीर पद 1) “गावण” हीं मैं “रोज” है, “रोवण” हीं में “राग”। इक “वैरागी ग्रही” मैं, इक “गृही मैं वैराग”॥
अर्थात- कबीरदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार हमें “गाने में ही रोने का” और “रोने में ही राग का” आभास होता है ठीक उसी प्रकार “वैरागियों की व्रत्ती” होती है फिर भले ही वो “ग्रहस्थि” में हो या “विरक्ति” में “बेरागियों” का मन हमेशा “राग रहित” ही होता है।
(कबीर पद 2) कबीरा कुल तौ सो “भला”,जिहि कुल उपजै “दास”।जिहिं कुल “दास” ना ऊपजै, सो कुल “आक पलास”॥
अर्थात- कबीरदास जी कहते हैं कि कुल तो वही श्रेष्ठ है जिस कुल में राम के “दास” पैदा होते हैं और जिस कुल में राम के “दास” पैदा नहीं होते हो, वह कुल तो “आकड़े” और “पलास” याने खांखरे के पेड़ के समान धरती के बोज ही माने जा सकते हैं।
बताया जाता है कि कबीरदास भी स्वामी श्री रामानंदाचार्य जी के द्द्वादश शिष्यों में थे,