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वैष्णव मैरिज ब्यूरो-चतुः संप्रदाय

प्राचीनकाल में नारियां भी शास्त्रार्थ में भाग लेती

भारत में गुरुकुल शिक्षा पद्धति की बहुत लंबी परंपरा रही है। विद्यार्थी गुरुकुल में विद्या अध्ययन करते थे। तपोस्थली में सभा, सम्मेलन और प्रवचन होते थे जबकि परिषद में विशेषज्ञों द्वारा शिक्षा दी जाती थी।

प्राचीनकाल में धौम्य, च्यवन ऋषि, द्रोणाचार्य, सांदीपनि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, वाल्मीकि, गौतम, भारद्वाज आदि ऋषियों के आश्रम प्रसिद्ध रहे। बौद्धकाल में बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य की परंपरा से जुड़े गुरुकुल जगप्रसिद्ध थे, जहां विश्वभर से मुमुक्षु ज्ञान प्राप्त करने आते थे और जहां गणित, ज्योतिष, खगोल, विज्ञान, भौतिक आदि सभी तरह की शिक्षा दी जाती थी।
प्रत्येक गुरुकुल अपनी विशेषता के लिए प्रसिद्ध था। कोई धनुर्विद्या सिखाने में कुशल था तो कोई वैदिक ज्ञान देने में। कोई अस्त्र-शस्त्र सिखाने में तो कोई ज्योतिष और खगोल विज्ञान में दक्ष था। 

प्राचीन भारत की गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत एवं प्रगति का मूल आधार युगीन शिक्षा ही थी। प्राचीन भारतीय शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास था।

व्यक्तित्व के सर्वागीण विकास में उसके चारित्रिक विकास तथा आध्यात्मिक विकास का उद्देश्य ही सर्वप्रमुख था। जिससे न केवल व्यक्तित्व समुन्नत हुआ, अपितु सम्पूर्ण देश और समाज का नाम ऊंचा हुआ।

चरित्र की शुद्धता के लिए ऋग्वेद काल में विशेष ध्यान दिया जाता था। शिक्षा का उद्देश्य सभ्यता और संस्कृति का हस्तान्तरण भी था। गुरुजन विद्यार्थियों को मौखिक शिक्षा देते थे। वैदिक मन्त्रों का पाठ ही ज्ञानार्जन का माध्यम था। इस युग की शिक्षा का मूल उद्देश्य ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति करके मोक्ष प्राप्त करना था।

अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चतुवर्ग की प्राप्ति मुख्य ध्येय था। स्वाध्याय एवं मनन की इस शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी बहुधा उपनयन संस्कार के बाद गुरु के आश्रम में ही रहने जाते थे। उनका आपसी सम्बन्ध पिता-पुत्र-सा होता था। गुरु ज्ञान-विज्ञान के पारंगत मर्मज्ञ विद्वान् थे। वे समाज के पथप्रदर्शक थे।

उत्तर वैदिककालीन काल में विद्यार्थियों के नियमित पठन-पाठन के लिए पाठशालाओं की व्यवस्था थी। उपनयन संस्कार के पश्चात् आचार्य विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश देते थे। इस प्रकार वह द्विज बन जाता था। आश्रम में प्रवेश के बाद विद्यार्थी को मेखला बांधनी होती थी। वह यज्ञ के लिए समिधा बटोरता, भिक्षाटन भी किया करता था। ब्रह्मचारी विद्यार्थी को श्रम व तप करके विद्योपार्जन करना होता था।

गुरु विद्यार्थी को हर प्रकार से सत्पथ पर लाने का प्रयास करता था, क्योंकि शिष्यों के पापों के लिए गुरु ही उत्तरदायी होता था। शिष्य गुरु को भगवान् मानकर उनकी सेवा-सुश्रुषा करता हुआ आज्ञा पालन करता था। इस युग की शिक्षा का उद्देश्य श्रद्धा, मेधा, ज्ञान, धन, आयु तथा अमरत्व की प्राप्ति था। उपनिषदों में देवविद्या, ब्रह्मविद्या, नक्षत्रविद्या, तर्कविद्या को विशेष महत्त्व दिया गया था।

बौद्धकालीन शिक्षा, मठों, विहारों में दी जाने वाली बौद्धकालीन शिक्षा का उद्देश्य चारित्रिक गुणों का विकास, ज्योतिष, तर्क, दर्शन था। बौद्धकाल में तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशिला, ओदलपुरी के विश्वविद्यालय विश्वप्रसिद्ध थे। धर्म, दर्शन, न्याय, तर्क, ज्योतिष आदि की शिक्षा कुशल अध्यापक देते थे। विद्यार्थी शान्त एवं प्राकृतिक वातावरण में शिक्षा प्राप्त करते थे। इन ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालयों में दूर देशों- के भी विद्यार्थी अध्ययन हेतु आते थे ।

प्राचीन भारतीय शिक्षा का व्यापक उद्देश्य चरित्र निर्माण करना था। ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए मानव जीवन का सर्वांगीण विकास करना, ताकि भावी जीवन में उसका पूर्ण सदुपयोग कर सकें। विद्यार्थियों को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के बाद अनेक प्रकार के कर्तव्य एवं लोककल्याण के उद्देश्य को पूर्ण करना तथा अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति शिक्षा का उद्देश्य था। राष्ट्रीय गौरव व संस्कृति की रक्षा करना भी इस युग की शिक्षा की आवश्यकता थी।

बालक का 6-7 वर्ष की अवस्था में उपनयन संस्कार कर दिया जाता था। यज्ञोपवीत हो जाने पर बालक 25 वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करते हुए उच्च शिक्षा ग्रहण करता था।

विद्यार्थी गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा-दीक्षा पूरी होने पर स्नातक बनता था, फिर समावर्तन संस्कार होने के बाद अपने गृहस्थ धर्म का पालन करता था।

विद्यार्थीकाल में सभी विद्यार्थी भिक्षाटन करते थे। किसी भी वर्ग का विद्यार्थी हो, वह गुरु की परिचर्या करता था। समिधा के लिए लकड़ियां लाना, गायों को चराना, इन सब नियमों के पालन का उद्देश्य विद्यार्थियों में समानता की भावना के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, चारित्रिक विकास करना था।

गुरु एवं शिष्य का सम्बन्ध पिता एवं पुत्रवत था। शिष्य को गुरु के पहले सोकर उठना होता था। फिर गुरु के सो जाने के बाद उसे सोना होता था। गुरु के आश्रम में अनुशासन एवं कर्तव्य का पूर्ण पालन करना होता था। धनी या निर्धन उनके आहार-विहार तथा रहन-सहन में समानता का ध्यान रखना होता था। गुरुकुल आश्रम प्रणाली की शिक्षा व्यवस्था श्रेष्ठ थी।

शिक्षा के विषयों में व्याकरण, गणित, ज्योतिष, भाषा, इतिहास, धर्म, दर्शन, अर्थशास्त्र, कृषि, न्याय, तर्क, चित्र, युद्धकला जैसे विषयों के अध्ययन के साथ-साथ वैदिक मन्त्रों को रटना, नियमों को याद करना सिखाया जाता था।

अध्यापन शैली की विशेषता यह थी कि शिष्य गुरु द्वारा पढाये गये विषयों पर चिन्तन, मनन, तर्क किया करते थे। रहस्यात्मक एवं गूढ़ विषयों को शिक्षक की सहायता से समझ लेते थे। मौखिक परीक्षा प्रणाली प्रचलित थी। वाद-विवाद, प्रश्नोत्तर द्वारा विद्यार्थियों की योग्यता एवं क्षमताओं का मूल्यांकन होता था।

प्राचीनकालीन शिक्षा में अपाला, घोषा, लोपमुद्रा, विश्ववारा, गार्गी, मैत्रेयी जैसी विदुषी नारियां अनेक गूढ़तम विषयों पर शास्त्रार्थ करके अपने पाण्डित्य का परिचय देती थीं। वे वाद-विवाद, तर्क-वितर्क में, यज्ञ तथा कर्मकाण्डों में अपने पतियों के साथ सक्रिय रूप से भाग लेती थीं।

प्राचीन भारतीय शिक्षा के केन्द्र-प्राचीनकाल में मठ, विहार, विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों को शिक्षा का केन्द्र माना जाता था, जहां संस्कृत, भाषा की शिक्षा दी जाती थी। शिक्षा केन्द्रों के संचालन के लिए राजा तथा धनिक वर्ग मुक्त हस्त से दान दिया करते थे। उनके अनुदान से ही शिक्षण संस्थाओं की समूची शिक्षा प्रणाली संचालित होती थी।

इस निष्कर्ष से कहा जा सकता है कि प्राचीनकालीन शिक्षा व्यवस्था देश में ही नहीं, समूचे विश्व में भी प्रसिद्ध थी। चरित्र निर्माण, आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ व्यक्ति के सर्वागीण विकास के उद्देश्य पर आधारित इस शिक्षा प्रणाली की ख्याति चारों ओर फैली हुई थी। इस तरह प्राचीन भारतीय शिक्षा संसार में अनूठी थी।

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