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वैष्णव मैरिज ब्यूरो-चतुः संप्रदाय

श्री वैष्णव जन का अद्भुत शास्त्रोक्त स्वरूप

भगवान श्रीविष्णु के श्रीमुखसे अपने भक्तों को सम्बोधित करने हेतु जिस शब्द का प्रयोग हुआ है वह शब्द है वैष्णव जन, यानि कि जो भगवान श्रीविष्णु का भक्त है, श्रीविष्णु की पूजा, उपासना, आराधना करने वाला है वह श्रीवैष्णव जन है। 

श्रीवैष्णव जन का शास्त्रीय स्वरूप

श्रीमद्भागवत पुराण के माहतम्य से लेकर ही वैष्णव शब्द को जिस रुप में परिभाषित किया गया है वह वैष्णव जन के लिए अत्यन्त गौरव की बात है। गौर करें …

श्रीसूत जी महाराज को संम्बोधित करते हुए श्रीशौनकादि ऋषी सवाल करते हैं कि,

भक्ति ग्यान विरागाप्त विवेको वर्धते कथम्। माया मोह निरासश्च वैष्णवैः किृयते कथं।।

अर्थात:- भक्ति, ग्यान, वैराग्य ओर विवेक की वृद्धी करने तथा माया मोह से छुटकारा पाने के उपाय हमें बताओ ओर यह भी बताओ कि (वैष्णवैः किृयते कथं) अर्थात वैष्णव जन एसा क्या उपाय करते हैं अर्थात वह क्या साधना है। 

अतः इस प्रसंन्ग से स्पस्ट हो जाता है कि आदिकाल से ही वैष्णवों की जीवन शैली, भक्ति, ग्यान, वैराग्य आदि मार्ग के लिए निश्चित ही उत्तम कोटी की रही होगी। तभी इस विषय पर इतनी गंभीरता पुर्वक ऋषियों ने सवाल खड़े किये हैं। वर्ना तो ऋषीवर यह भी कह सकते थे कि द्धिज जन अथवा ब्ह्रामण वर्ग के पास में इस तरह का क्या उपाय है। अस्तू … श्री मद्भागवत माहतम्य श्लौक 2

ठीक इसी कृम के श्लौक 20 में प्रसन्ग आता है श्री मद्भागवत वक्ता याने कथा करने की पात्रता के बारे में क्या बताया गया है, 

विरक्तो वैष्णवो विप्रो वेद शास्त्राभि शुद्धीकृतः

अर्थात:- वे विरक्त, वैष्णव एवं विप्र जन जो वेद शास्त्रों के ग्यान में निपूण हो। वे इसके लिए पात्र माने गए हैं। ओर तो ओर वैष्णव का महत्व प्रतिपादित करते हुए श्री मद्भागवत के अध्याय 5 श्लौक 14/15 में तो यहां तक उल्लेख किया गया है –

अवैष्णवो हतो देशो, हतं श्राद्धंम पात्रकं।

अर्थात:- जिस किसी ग्राम अथवा देश में वैष्णव वास न करते हो उस ग्राम में वास करना निश्फल माना गया है जैसे कि, (हतं श्राद्धं पात्रकं) अर्थात जिस तरह से श्राद्धकर्म में कुपात्र का भोजन कराना निश्फल माना गया है। 

अब वैष्णव वृत्ति के बारे में गौर करें …

त्रणादपि सुनीचेन तरौरिवः सहिष्णुता। अमानेन मानदेय किर्तनियं सदा हरिः।।

अर्थात:- वैष्णवजन अपने आपको मान बढ़ाई से परे, स्वयं को एक तिनके से भी छोटा समझें और तरुवर की तरह सहनशील बनें,  मान-अपमान में समभाव रखते हुए सदैव श्रीहरि किर्तन में तल्लीन रहें। 

श्रीमद्भागवत में ही राजा प्रथु के प्रसन्ग में ;अच्युत गोत्र के वैष्णव” का उल्लेख कुछ इस तरह से किया गया है। गौर करें…


अर्थात अच्युत गोत्र के वैष्णव को भगवान के प्राण समान बताया गया हैं।

वैसे तो हमारे वेदों, पुराणों में उपनिषदों में तथा विभिन्न टिकाओं में वैष्णव शब्द इसी संदर्भ में आया है इनमें जिस रूप में वैष्णव को सम्बोधित किया गया है उससे वैष्णव शब्द के अर्थ को समझने में कोई मुश्किल नहीं है।

भक्त नरसीह मेहता के भजन में परिभाषित वैष्णव जन, विडियो भी सुनें.. 

हम गौर करें तो प्रसीद्ध भक्त नरसीह मेहता के इस भजन में वैष्णव जन को बहुत ही सुन्दर तरीके से परिभाषित किया गया है-

वैष्णव जन तो तेने कहिऐ जे पीऱ पराई जाणे रे।

पर दुखे उपकार करे तो मन अभिमान न आणे रे।। वैष्णव जन …

सकल लोक मां सबहु ने वन्दे, निन्दा न करे केणी रे। 

वाच काच मन निश्चल राखे, धन-धन जननी वेणी रे।। वैष्णव जन …

समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी, पर तीरीया जेने मात रे। 

जिव्हा थकी असत्य न बोले, पर धन न झाले हाथ रे।। वैष्णव जन …

मोह माया व्यापे नहीं जेने, दृढ़ वैराग तेने मनमा रे। 

राम नाम सू तानी लागी, सकल तीरथ तेने तनमा रे।। वैष्णव जन …

वण लोभी ने कपट रहित छे, काम क्रोध निवराया रे। 

भणे नरसि तेनु दरसन करता, कुल इकोतर तारिया रे।। वैष्णव जन …

इस भजन में वैष्णव के वे सभी गुण उजाकर होते है जिनका निरुपण कई शास्त्रों में पढ़ने सुनने को मिलता रहता है। ऐसे व्यक्तियों के समुदाय को सम्प्रदाय की संज्ञा दी गई है अतः वैष्णव एक सम्प्रदाय है।

स्वामी श्रीरामानंदाचार्यजी ने पृथक् रुप से श्रीवैष्णव सम्प्रदाय को स्थापित किया,

स्वामी श्रीरामानंदाचार्यजी के कुल 12प्रमुख शिष्य थे:- 1.संत श्रीअनंतानंदजी, 2.संत श्रीसुखानंदजी, 3.संत श्रीसुरासुरानंदजी, 4.संत श्रीनरहरीयानंदजी, 5.संत श्रीयोगानंदजी, 6.संत श्रीपिपानंदजी, 7.संत श्रीकबीरदासजी, 8.संत श्रीसेजान्हावीजी, 9.संत श्रीधन्नादासजी, 10.संत श्रीरविदासजी, 11.संत श्रीपद्मावतीजी और 12. संत श्रीसुरसरीजी ।।

विद्धवानों के अनुसार स्वामी श्रीरामानंदाचार्यजी की दो प्रकार की शिष्य-परम्पराएँ थीं। भक्ति का प्रचार करने वाले भक्त-कवियों में एक के प्रतिनिधि संत श्रीकबीरदासजी और दूसरी के संत श्रीतुलसीदास हुए। 

चतुः सम्प्रदाय 52द्धारा

यद्यपी श्रीवैष्णव सम्प्रदाय को स्वामी श्रीरामानन्दाचार्यजी ने नई पहचान प्रदान की है। उसीके तहत चतुः सम्प्रदाय 52द्धारा गोत्र प्रचलन में आए। अत एव श्रीवैष्णव सम्प्रदाय में स्वामी श्रीरामानंदाचार्यजी द्वारा स्थापित धार्मिक परम्पराओं का पालन किया जाता है। इससे पूर्व शेव एवं वैष्णव मतावलंबियों के बीच अपनी अपनी धार्मिक परम्पराओं को लेकर कई बार हिंसक विवाद भी हुए हैं। इस कड़े संघर्ष का व्यापक इतिहास रहा है।

बताया जाता है स्वामी श्रीरामानंदाचार्यजी बहुत बड़े क्रान्तीकारी विचारों के सन्त थे। जिन्होंने वर्ण व्यवस्था से परे भेदभाव रहित सर्वजनहितकारी श्रीवैष्णव सम्प्रदाय अन्तर्गत सर्वजनसुलभ उपासना पद्धति एवं नई परम्पराओं को अंगीकार किया। युगल ईष्टदेव आराधना, गुरुपरम्परा, राममंत्र, श्रीविष्णु तिलक, सिरपर चुटिया, तुलसीमाला, कंठीधारण, पित्र पादुका स्थापन सहित वैष्णवीय तीथियों, वृतोपवास उत्सव करने जैसे कई बड़े बदलाव हुए।

श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के वैष्णवजन जिन्हें अबतक चतुः सम्प्रदाय 52द्धारा गोत्र अन्तर्गत देश के अलग अलग प्रान्तों में जैसा कि वैरागी, बैरागी, साध, सन्त, स्वामी, महन्त, महात्मा, बाबा इत्यादि पुकारा जाता हो उन्हें किसी एकमात्र जाती सूचक सम्बोधन के तहत मान्यता देने की बात आती हो तो वह सर्वमान्य व्यापक अर्थपूर्ण सम्बोधन श्रीवैष्णव ही है। 

यद्यपी वैष्णव सम्प्रदाय, द्धाराचार्यो की परम्पराओं के लोगों द्वारा अपनी पहचान वैष्णव के रूप में देने का सिलसिला बरसों से चला आ रहा है, हालांकि अब भी अलग-अलग क्षैत्रों में, साधू, सन्त, बाबा, स्वामी, वैरागी, बैरागी, आचार्य शब्द जाति के प्रतीक बने हुए है।

इसलिए कइ वैष्णव जन दावा करते है कि केवल वैष्णव शब्द ही एक ऐसा क्रान्तिकारी संबोधन है जो देश के सम्पूर्ण वैष्णव जन को संगठित करने में मददगार सिद्ध होगा।

(उपयोगी सुझाव सादर अमंत्रित है)

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