प्राचीनकाल में भी ‘वैरागमय ग्रहस्थ जीवन’ व्यतित करने के शास्त्रों में कई प्रमाण मिलते हैं। जो अब भी वही प्रक्रिया अध्यात्म मार्ग पर द्रुत गति से आगे बढ़ने वाले साधनों के लिए उपयुक्त रुप में प्रचलित है।
प्राचीनकाल के ऋषि–मुनि आज के साधुओं से सर्वथा भिन्न थे। उनमेंसे अधिकांश ‘वैरागमय ग्रहस्थ जीवन’ व्यतित करते थे। प्रकृति के समीप शुद्ध जल–वायु का आश्रय लेकर वे विरल प्रदेशों में रहते थे। गोपालन, फल, शाक उत्पादन आदि निर्वाह की उपयुक्त व्यवस्था वही बना लेते थे। आश्रम में स्त्री–बच्चों समेत रहकर भी अपने परिवार को सुसंस्कारी और लोकोपयोगी बनाते थे। ऋषि जीवन के साथ ही गुरुकुल, चिकित्सा, तप, शास्त्र चिन्तन, लोकोपयोगी परामर्श, विभिन्न विषयों के शोधकार्य जैसी गतिविधियाॅं संचालित करते थे तथा भ्रमण करके जन–जागरण की आवश्यकता पूरी करते थे।
उसके कुछ शास्त्रोक्त प्रमाण भी देखिये–
तारावृहस्पतेर्भार्य्या वशिष्ठस्याप्यरुन्धती। अहल्या गौतमस्त्री साप्यनस्यात्रिकामिनी॥देहहूती कर्दमस्य प्रसूतिर्दक्षकामिनी। पितृणाँ मानसी कन्या मेनका साम्बिकाप्रसूः॥लोपामुदा तथाहूती कुबेरकामिनी तथा। बरुणामी यमस्त्री चबलेर्विन्ध्यावलीति च॥ ब्रह्म वैवर्त पुराण
सुर गुरु श्रीबृहस्पतिजी की भार्या का नाम तारा देवी है, श्रीवशिष्ठजी की पत्नी अरुन्धतीजी है, श्रीगौतम ऋषि की पत्नी अहल्या है, श्रीअत्रि की पत्नी अनसूया है, देवहूति नाम वाली श्रीकर्दम की पत्नी है तथा श्रीदक्ष की पत्नी प्रसूति नाम धारिणी है। पितृगण की मानसी कन्या मेनका अम्बिका प्रसू है। लोपामुद्रा तथा आहुति कुबेर की कामिनी है यम की वरुणानी है तथा राजाबली की पत्नी विन्ध्यावली है।
तस्य प्रधायमानस्य कश्यपस्य महात्मनः। ब्रह्माणोऽशौ सुतौ पश्चात् प्रादुर्भूतौ महौजसौ॥वत्सारश्चासिश्चैव ताबुभौ ब्रह्मवादिनौ। वायु पुराणतस्य कन्या त्विडविडा रुपेणाप्रतिमाभवत्। पूलस्त्याय स राजर्षिस्तां कन्यां प्रत्यपादयत्॥ ऋषिरिडविडायान्त विश्रवाः समपद्यत। वायु पुराण
महात्मा कश्यप के दो पुत्र उत्पन्न हुए 1वात्सर और असित। वे दोनों ही ओजस्वी और ब्रह्मवादी थे। रूप में अप्रतिम परम सुन्दरी कन्या इडविडा से ऋषि पुलस्त्य ने विश्रवा को जन्म दिया।
बृहस्पतेबृहत्कीर्तिर्दे वाचार्यस्य कीर्तितः। कन्याँःतस्योपयेमे स नाम्ना वै देववर्णिनीम्। वायु पुराणदेवों के आचार्य बृहस्पति को बृहत्कीर्ति कहा गया है, देववर्णिनी कन्या के साथ विवाह किया।
शुकस्याऽस्याभवन् पुत्राः पश्चाऽत्यन्ततपस्विनः। भूरिश्रवाः प्रभुः शम्भु कृष्णो गौरश्च पश्चमः॥ कन्याकीर्तिमतीचैवयोग माताधृतव्रता। कूर्म पुराण
श्रीशुकृदेव के पाँच अत्यन्त तपस्वी पुत्र हुए जिनके नाम भूरिश्रवा, प्रभु, शम्भु, कृष्ण तथा कन्या कीर्तिमती– योग माता धतवृता थी।
अरुन्धत्याँ वशिष्ठस्तु शक्तिमुत्पादयत्सुतम्। शंक्तेः पराशरः श्रीमान् सर्व्वज्ञस्तपतां वरः आराध्य देवदेवेशमीशानंत्रिपुरान्तकम्। लेभे त्वप्रतिमं पुत्रं कृष्णद्वैपायं प्रभुम्॥ कूर्म पुराण
श्रीकश्यपऋषि ने पुत्रों की कामना करते हुए इस प्रकार से प्रजा को सन्तान के कारण से पुत्रों को समुत्पन्न करके फिर सुमहान् तप किया था। उनके 1वत्सर और असित हुए वे दोनों ब्रह्मवादी थे।
पाण्डुश्चैव मृकण्डुश्च ब्रह्मकोशौ सतातनो। मनस्विन्याँ मृकण्डोश्च मार्कण्डेयो बभूव हे॥प्रजायते पूर्णमासं कन्याश्चेमा निबोधत। तृष्टि पृष्टिस्त्विष चैव तथा चापचितिः शुभा॥स्मृतिश्चाडिरसः पत्नी जज्ञे तावात्मसम्भवौ। पुत्रौ कन्याश्चतस्त्रश्च पुण्यास्ता लोकविश्रुता॥अनसूयापि जज्ञे तान् पश्चात्रे यानकल्मषान्। कन्याँचैव श्रुति नाम माता शख्पादस्य या। कर्म मस्य तु या पत्नी पुलहस्य प्रजापतेः ऊर्जायान्तु वशिष्ठस्य पुत्रा वै सप्त जज्ञिरे। ज्यायसी च स्वसा तेषाँ पुण्डरीका समुध्यमा॥ वायु पुराण
पांडु और मृकण्डु ब्रह्मकोश तथा सनातन हुए। मनस्विनी में मृकण्डु से मार्कंडेय उत्पन्न हुए। श्रीमारीचि की पत्नी सम्भूति नाम वाली थी उनके पुत्र अपत्य उत्पन्न हुए, उनके तुष्टि, पुष्टि, त्विषा, अत्यचिति और शुभा ये कन्याएं हुईं। श्रीअंगिरा की पत्नी स्मृति ने दो पुत्र पैदा किए और चार परम पवित्र तथा लोक विश्रुत कन्या उत्पन्न की। अनसूया ने भी अकल्मष पाँच अत्रियों को जन्म दिया और एक कन्या उत्पन्न की जिसका नाम श्रुति था जो शंखपद की माता थी, पुलह कर्दम की पत्नी थी। श्रीवसिष्ठ के सात पुत्र उत्पन्न हुए और कन्याएं ज्यायसी, सुमध्यमा, पुण्डरीका हुईं।
स्वस्त्यात्रेया इति ख्याता ऋषयो वेदपारगाः। तेषाँ विख्यातयशसौ ब्रह्मिष्ठौ सुमहौजसौ॥ दत्तात्रेयस्तस्य ज्येष्ठो दुर्वासास्तस्य चानुजः। –वायु पुराण
स्वस्त्यात्रेय इस नाम से विख्यात वेद के पुरोगामी ऋषिगण थे उनमें विख्यात यश वाले महान् ओज से युक्त परम ब्रह्मिष्ठ दो पुत्र थे। उनमें 1श्रीदत्तात्रेय 2श्रीदुर्वासा हुए।
गृहस्थ में रहते हुए–स्वावलम्बी आजीविका उपार्जन करते हुए राजाजनक की तरह जल में कमल पत्र व्रत रहना सम्भव है (1) उच्च मनोभूमि (2) सत्कर्म (3) वाणी का श्रेष्ठतम सदुपयोग करना यह तीन दण्ड है। उन्हें धारण करने वाला व्यक्ति बिना वेष धारण किये त्रिदण्डी संन्यासी तथा वैरागी हो सकता है।
वस्तुतः शारीरिक और मानसिक उत्कृष्टता को धारण करना ही योगी यति होने का वास्तविक आधार है घर छोड़ देना या वेष धारण करना उसके लिए आवश्यक नहीं। प्राचीन परम्परा ऐसी ही साधना की है। जिसमें मन की क्रिया को निर्मल उत्कृष्ट बनाने पर ही सारा जोर दिया जाता रहा है। ऋषि–मुनि इसी स्तर के होते रहे है इसका उल्लेख शास्त्रों में सर्वत्र उपलब्ध है–
गृहस्थश्चाप्यनासक्तः स मुक्तो योगसाधनात्। योगक्रियाभियुक्तानाँ तस्मात्संयतते गृही॥गेहे स्थित्वा पुत्रदारादिपूर्णः सगंत्यक्त्वा चान्तरे योगमार्गे। सिद्धे चिन्ह वीक्ष्य पश्चाद्गृहस्थः क्रीडेत्सों वै सम्मत साधयित्वा॥ (शिव गीता)
योग साधना में संलग्न साधक गृहस्थ रहते हुए भी संयम पूर्वक साधना करने से सिद्धि प्राप्त करता है। घर में रह कर स्त्री पुत्र आदि की व्यवस्था अनासक्त भाव से करते हुए योग साधना में सफलता प्राप्त कर सकता है।
बाग्दण्डः कर्मदण्डश्च मनोदण्डश्चतेत्रयः। यस्यैतैनियतादण्डाः सत्रिदण्डीमहायतिः॥ (मारकण्डेय पुराण)
जिसके पास (1) वाक् दण्ड (2) कर्म दण्ड (3) मनः दण्ड है वही त्रिदण्डी है। वही महा यति है।
इन्द्रियाणि वशीकृत्य गृह एवं वसैन्नरः। तत्र तस्य कुरुक्षेत्र नैमिष पुष्कराणि च॥ गडद्वारच्च् केदारं सन्निहत्यां तथैव च। एतानि सर्वतीर्थानि कृत्वा पापैः प्रमुच्यते॥ (व्यास स्मृति)
अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाला मनुष्य यदि घर में ही रहे तो उसके लिए वह घर ही नैमिषारण्य, कुरु क्षेत्र एवं पुष्कर के समान है। जिसने अपने मन को जीत लिया उसके लिये गंगाद्वार, केदारनाथ आदि सभी तीर्थों का लाभ अपने पास ही मिल जाता है।
वैराग का अर्थ होता है-‘राग–रहित होना’…
राग का अर्थ– आसक्ति, लगाव या मोह–जनित प्रेम है। दूसरे शब्दों में आसक्ति–रहित, लगाव–रहित वा मोह–रहित होना वैराग है।
‘राग’ में ‘अनु’ उपसर्ग जुड़ने से ‘अनुराग’ शब्द बनता है, जिसका अर्थ होता है– शुध्द, सात्विक और निर्मल प्रेम। इस तरह वैराग और अनुराग दो परस्पर विरोधी भाव हैं। अर्थात् एक के होने में दूसरे का अभाव है।
अनुराग कहता है–अपनाओ, पकड़ो। वैराग कहता है– त्यागो, छोड़ो, भागो। इस तरह दोनों एक दूसरे से विपरीत दिशा की ओर अग्रसर होने का निर्देश देते हैं।
साधारणत: मानवीय चित्त का संबंध जिस किसी व्यक्ति, वस्तु वा स्थान से होता है, वहां अनुरागभाव माना जाता है और मानवीय चित्त का संबंध जिन चीजों से नहीं होता, वहां उन सबसे वैरागभाव माना जाता है।
आत्मारामाश्च मुनयो निर्गन्था अप्युरुकृमे। कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणों हरिः।। श्रीमद्दभागवत 1।7।10
हमारे ऋषियों, आत्म–तत्वदर्शियों ने परमात्मा की सम्पूर्ण सृष्टि को अपने दिव्य ज्ञान से मंथन कर दो तत्वों का सार निकाला है– (1) आत्मत्व और (2) अनात्मत्व अथवा भौतिकता। संसार अर्थात् माया के प्रवाह से सतत प्रवहमान-‘जीवन–मरण चा’ आवागमन का महादु:ख सागर। माया। ‘मा’ का अर्थ होता है– नहीं और ‘या’ का अर्थ होता है– जो। माया अर्थात् जो वास्तविक नहीं है, वरन् असत्य, अनित्य एवं नाशवान है। इस मायिक संसार में दूसरा सबसे उत्कृष्ट तत्व है–आत्मत्व, जो सदा एक–सा रहनेवाला, नित्य, सत्य एवं सनातन है। इसी आत्मत्व से संबंध जोड़कर जड़ माया भी सत्य–सी जान पड़ती है।
मोक्ष–प्राप्ति के चार साधनों में ‘वैराग’ को प्रथम स्थान– ‘विवेक चूड़ामणि’ में श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी महाराज ने मोक्ष–प्राप्ति के चार साधनों में ‘वैराग’ को प्रथम स्थान प्रदान किया है– ‘मोक्षस्य हेतु प्रथमो निगयते वैराग्यमनित्य वस्तुषु’।
अर्थात्- मोक्ष का प्रथम हेतु अनित्य या अनात्म वस्तुओं से वैराग होते ही मोक्ष अर्थात् आत्मानुराग उत्पन्न होता है। गीता अध्याय 13 के श्लोक 5 और 6 के अन्तर्गत क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का वर्णन करते हुए 31 अनात्म–तत्वों के समूह को क्षेत्र कहा गया है, जो दृश्य हैं, यथा–पांच स्थूल तत्व (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), पांच सूक्ष्म तत्व (रूप, रस, शब्द, गंध और स्पर्श), दश इन्द्रियां (पांच कर्मेन्द्रिय और पांच ज्ञानेन्द्रिय), चार अन्त:चतुष्ट्य (मन, बुध्दि, चित, अहंकार), का चेतन, संघात (कहे गये का संघ रूप), धृति (धारण करने की शक्ति) और इसके विकार–इच्छा, द्वेष, सुख और दु:ख–ये 31 अनात्म–तत्व हैं। इन सबसे वैरागभाव रखने से क्षेत्रज्ञ वा आत्म–तत्व से अनुराग होता है।
कुछ और प्रमाण देखिये–
नाराधितो यदि हरिर्येन पुंसाधमेंन च। किं तस्य तपसा व्यर्थं निष्कलं तत्परिभ्रमम।।भक्तप्राणो हि कृष्णश्च कृष्णप्राणा हि वैष्णवा:।ध्यायन्ते वैष्णवा: कृष्णं कृष्णश्च वैष्णवा वैष्णवांस्तथा:।। (नारद पाञ्चरात्र)
परमपदमिति स्वसंवेद्यमात्यन्त भासाभासकर्मण:। तत्परं पुरूषख़्यातेर्गुणवैतृष्यन्यम।(योगदर्शन 2।16)
अर्थात– पुरुषके ज्ञानसे, सत्यके साक्षात्कारसे अथवा सदाचारसे प्रकृतिके गुणोंमें तृष्णाका सर्वथा अभाव ही परं वैराग्य है। जो सदाचारी पुरुषों का मूल धर्म है।
साधवः क्षीणदोषास्तु सच्छब्द: साधुवाचक:। तेषामाचरणं यत्तु सदाचार: स उच्यते।।(विष्णुपुराण 3।11।3)
अर्थात– साधुलोग दोष रहित होते हैं इसलिए उनका सदाचार ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इसके अनंतर भी 11।12 अध्याय में सद्ग्रहस्थादीके लिए विस्तार है।
आचाराद्द विच्युतो विप्रो न वेदफ़लमश्नुते।आचारेण तु संयुक्तं सम्पूर्णफलभागभवेत।।(स्मृति)
अर्थात– सदाचार रहित ब्राह्मण भी वेद के फल को प्राप्त नहीं होता है। यूं तो वेदज्ञ रावण भी था।
सदाचारलक्षणो धर्म: सन्तश्चरित्रलक्षणा:।साधूनां च यथावृत्तमेतदाचारलक्षणम।। म.भा. अ.प. 104।9
अर्थात– धर्म का स्वरूप ही सदाचार है। जो साधुओं का मुख्य चरित्र है।
यस्यास्ति वितं स नर: कुलीन: स पंडित: स श्रुतवान गुणज्ञ:। स एव वक्ता स च दर्शनीय: सर्वे गुणा: कान्चनमाश्रयन्ति।। (भर्तहरिनितीश) 32।164
अर्थात– धनीहो, पंडितहो, गुणज्ञहो, या वक्ता मगर इनमेंसे श्रेष्ठ तो सदाचारी माने जाते हैं।
न लोकवृत्तं वर्तेतु वृत्तिहेतो: कथन्चन।अजिह्माष्ठान शुध्दां जीवेद् ब्राह्मण जीविकाम।(मनुस्मृति वही 4।11)
अर्थात– ब्राह्मण को चाहिए कि वह जीविकोपार्जन के लिए कुत्सितकर्म मान बड़ाई मिथ्याभाषण इत्यादि न करें।
श्रुतिस्मृती ममेवाज्ञे यस्त उल्लंग्य वर्तते।आज्ञाच्छेदी मम द्वेषी मद्भक्तोपि न वैष्णव:।।श्रुतिस्मृति पंचदशी 6।79
अर्थात– धर्मशास्त्र श्रीमन्नारायण के आज्ञास्वरूपहै। शास्त्र विरूद्धाचरण श्रीमन्नारायणद्वेषी आज्ञाछिन्न होकर भक्त अथवा वैष्णव कहलाने योग्य नहीं माना गया है।
वैसे भी हमारे वैष्णव संप्रदाय दो भागों में विभक्त है एक विरक्त और एक ग्रहस्थ और दोनो में ही वैष्णव वैरागी थे हैं और रहेंगे। यद्यपि कुतर्को के माध्यम से समाज के कई लोगों द्वारा इस संदर्भ में भ्रम फैलाय जाता है मगर सच तो यही है कि हमारे द्वाराचार्य वैष्णव विरक्त वैरागी हैं और उन्हीं द्वारा चार्यो के द्वारा ग्रहस्थ वैष्णव वैरागियों को श्री रामनाम तारक मंत्र माला कंठी उर्ध्व पुन्ड्र वैष्णव तिलक धारणा कर दिक्षित करने परम्पराओं का नियमानुसार पालन करने का प्रावधान हमारे शास्त्रों में उल्लेखित है।
“जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा”।। श्रीरामचरितमानस।
गायन्ति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे।स्वर्गापवर्गा स्पदहेतुभूते भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात।। (विष्णुपुराण)
विष्णुपुराण में देवताओं का यह श्लोक प्रसिद्द है जिसमे वे तरसते हुए कहते हैं कि भारतभूमि पर जन्म लेने वाले धन्य है।
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